अंतर्मन
अंतर्मन छितराता है
जब अपना कोई
दूर देश को जाता है
रह रहकर मन भर आता है
लाखों जतन जुटाकर भी
वो पास ना रहने पाता है
मन की पीड़ा मन ही मन
घुट घुटकर रह जाती है
अंतर्व्यथा ना जाने कोई
रोम रोम भर आता है
अभी तो ना बैठे थे दो पल
सुख दुख साझा करने को
बचपन से जो अब तक बीती
हर इक किस्सा कहने को
बात पुरानी महफिल की हो
या खिलती नव कलियों की
दुःख हो या सुख हो
सब मिलकर सहना ही
अपनापन है
बचपन में हर इक पल का झगड़ा
अब जाने क्यूं ना होता है
एक रुपए का सिक्का हो या
बागों की तोड़ी जामुन
ज्यादा हिस्सा किसका है
किसका कम किसका ज्यादा ।
फिर हाथापाई और छीना झपटी
कहां गई बचपन की छुट्टी
रहे ना वैसे बाग बगीचे
रही ना वैसी दहलीजें
पुरखे घर के कहां गए
अम्मा बाबा दीदी मौसी
सब अपने थे जो छूट गए
बैठ अकेला हरदम सोचूं
कहां गए वो कहां गए।
हाए ! सिसक सिसक कर
रो देता है मन
भर आते हैं आंसू
और खो जाता हूं मैं
फिर से अंतर्मन।