अंतर्निहित भय
न्यूटन ने कहा था कि वे चाँद तारों की गणना तो कर सकते हैं , परन्तु अपने मन के बदलते भावों को नहीं समझ सकते । वैज्ञानिकों का कहना है , हमारेमस्तिष्क का 95 % भाग अवचेतन हैं जिससे मनुष्य अपरिचित है, यहाँ भावनाओं की इतनी पर्ते हैं कि बड़े बड़े कलाकार , वैज्ञानिक हार जाते हैं । औरबात यहाँ समाप्त नहीं होती , मस्तिष्क के जिस हिस्से में भावनायें हैं , और जिस भाग में तर्क शक्ति है, वह दोनों एक-दूसरे से अलग हैं और उनकी आपसमें बात नहीं होती ।
लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य जंगल में एक असहाय प्राणी की तरह रहता था , भय, अनिश्चितता , व्यग्रता में सहमा सा जीता हुआ । कुछ अवशेषों के आधार परकहा जा सकता है कि मनुष्य कुछ 50,000 वर्ष पूर्व अग्नि का प्रयोग करना सीख गया था , और यहीं से उसके सामर्थ्यवान होने की यात्रा भी आरम्भ होतीहै । आज वही असहाय प्राणी प्रकृति के अनेकों रहस्यों का उद्घाटन कर रहा है, वह प्रकृति को अपने बस में करना चाहता है, जबकि उसका मन उससेउतना ही अन्जान है, जितना लाखों वर्ष पूर्व था ।
कालिदास की कहानी बचपन में हम सब ने सुनी है । राजकुमारी विदयोतमा से बदला लेने के लिए विद्वानों को उनके लिए एक मू्र्ख वर की तलाश थी ।कालिदास जिस पेड़ की शाखा पर बैठे थे , उसे ही काट रहे थे , विद्वान हंस दिये, इससे मूर्ख मनुष्य कौन होगा जो जानता ही नहीं कि शाख़ टूटने के साथवह स्वयं भी पृथ्वी पर गिर जायेगा ।
क्या आज हमारे समाज की स्थिति कालिदास जैसी नहीं ! हम उस पर्यावरण को नष्ट कर रहे है, जिसके बिना हमारा अस्तित्व असंभव है, सच्चाई तो यहहै कि हम उस कालिदास से भी अधिक मूर्ख हैं क्योंकि हम अपने कर्मों का परिणाम जानते हैं , फिर भी हमारी भावनायें हमारे बस में नहीं ।
भय , व्यग्रता, जंगल में रहने वाले हमारे उन पूर्वजों के लिए लाभकारी गुण थे , इससे वह आने वाले ख़तरों से सावधान हो जाते थे , परन्तु आज के युग मेंयह गुण हमारी शांति में बाधा बन गए हैं । आदि मानव का तनाव थोड़े से समय के लिए होता था , परन्तु आज के उपभोक्ता वाद के युग में यह हमारेजीवन का भाग बन गया है ।सेपियन के लेखक नोहा हरीरी का कहना है कि मनुष्य ने पिछले कुछ वर्षों में प्रगति इतनी तीव्र गति से की है कि उसे यहभावनायें सुलझाने का समय ही नहीं मिला ।
अब मनुष्य विज्ञान की इतनी समझ पा गया है कि तीव्र गति से अपने शरीर की रचना को बदलने की पूर्ण क्षमता पा लेगा , अपनी ही तरह मशीनी मनुष्यबना लेगा । और यह सब बनायेगा बिना जनसाधारण की राय लेकर , बिना सही क़ानून बनाये , और सबसे बड़ी बात , बिना अपने भीतर के भय कोमिटाये । जब मनुष्य जंगल में था तो निश्चय ही वह अनेक प्रकार की असुरक्षाओं से घिरा था , आज उसी असुरक्षा ने हमें लीलची बना दिया है , धन हमेंभोजन की सुरक्षा देगा , यह सोचकर हम जंगल काट रहे हैं, सागरों को दूषित कर रहे है, हवा में घातक गैसों को बड़ा रहे हैं । वातावरण इतना दूषित करडाला कि ओज़ोन होल बना डाला ।
व्यक्तिगत रूप से हम सब चाहते हैं जीवन सरल हो, सहज हो , स्वतंत्र हो , परन्तु अपने अंतर्निहित भय के कारण जब हम समाज का रूप धारण करते हैं , तो एक-दूसरे पर अविश्वास के कारण हमारा व्यवहार घातक हो उठता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जंगल में कभी भी 150 से अधिक मनुष्य एकसाथ नहीं रहते थे, और यह संख्या आज भी हमारे सामाजिक घेरे को नापती है, व्यक्तिगत रूप से हम इससे अधिक लोगों को नहीं जानते , भले ही सोशलमीडिया पर हमारे लाखों फ़ॉलोअर हों ।
आज दुनिया सिमट गई है, सता केंद्रित होती जा रही है, और तकनीक इन मुट्ठी भर सत्ताधारियों को और शक्तिशाली बनाती जा रही है, जो पूरी मानवताका भविष्य अपने भीतर छिपे डर के बल पर चला रहे है। जन साधारण का स्वर लगातार धीमा पड़ता जा रहा है ।
अब प्रश्न है कि जनसाधारण क्या करे ? शिक्षा पद्धति पूंजीवाद के हाथों बिक गई है, माँ को शिशु निर्माण के लिए समय नहीं मिलता, वह भी धन कमारही है, क्योंकि नियम क़ानून कुछ भी मातृत्व को दृष्टि में रख कर नहीं बनाये गए, हमारे बच्चे स्क्रीन के साथ व्यस्त है । आज मनोविज्ञान माँ के स्नेह कामूल्य जानता है, परन्तु धन कमाने की इस लालसा के समक्ष चुप है । मनोविज्ञान यह मानता है कि अकेलेपन से बड़ी कोई बीमारी नहीं, फिर भी मनुष्यअकेला होता चला जा रहा है ।जीवन का कोई क्षेत्र नहीं बचा , जहां पूंजीवाद का बोलबाला न हो । यहाँ पूंजीवाद से मेरा अभिप्राय उसके विशुद्ध दर्शन सेनहीं है, अपितु जीवन में सबसे अधिक मूल्यवान धनोपार्जन को मान लेने के दृष्टिकोण से है ।
यदि जनसाधारण अपने जीवन को सही रूप देना चाहता है तो उसे अपने भीतर के भय से लड़ना होगा, प्रकृति का सम्मान करना होगा, अपनी आवाज़ मेंबल लाना होगा , हमें राजनीतिक, सामाजिक , आर्थिक संरचनाओं को बदलना होगा । नई शिक्षा पद्धति, न्याय पद्धति , नए विचार हमारी प्रतीक्षा में हैं ।
शशि महाजन- लेखिका
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