अंतर्द्वंद्व
जीवन की अकांक्षाएं,
आसमान में उड़ते पतंग-सी,
डोर रहित,
खींच ले जाती हैं,
उस अनंत अनहद की ओर,
जहां से लौट पाना,
दुस्साध्य-सा लगता है।
कंटीली डगर,
लहुलुहान करने को आतुर,
अवरूद्ध करती है,
अविगत सफर।
लड़खड़ाते कदम,
अविच्छिन्न,
अहर्निश,
शनैः-शनैः
बढ़ते रहते हैं,
मरातिब की ओर।
होता है अवबोधन,
उस अटल सत्य का,
जो आज भी शाश्वत है,
अक्षुण्ण है,
हिमगिरि-सा,
इस लोक में।
फिर भी नैराश्य के
अविरल सिंधु में,
डूबता चला जाता है,
जीर्ण-शीर्ण,
पराजित योद्धा की मानिंद।
विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
तोशाम, जिला भिवानी,
हरियाणा