अंज़ामे -आशिक़ी यूं बताना पढ़ा मुझे
ग़ज़ल
अंज़ामे-आशिक़ी यूँ बताना पड़ा मुझे
अहसान आंसुओं का उठाना पड़ा मुझे।
पूछा किसी ने मेरी हँसी का जरा सबब
अपनी तबाहियों को छुपाना पड़ा मुझे।
हाथों में जाम लेके मिरे दोस्त आ गये
मज़बूरियों का ज़श्न मनाना पड़ा मुझे।
यादों नें दी सदाएँ मिरे दिल पे जब कभी
आँखों को आंसुओं में डुबाना पड़ा मुझे।
रोटी थी उसके हाथ में होठों पे इल्तिज़ा
ऐसे में अपने शेर सुनाना पड़ा मुझे।
दुश्मन हुआ है भाई तो रिश्ता ही तोड़ दूँ
पैबंद बेबसी में लगाना पड़ा मुझे।
उनको”धरम”अज़ीज़ थी मेरी लिखी ग़ज़ल
अपना नसीब यूँ भी बनाना पड़ा मुझे।
Dharamraj deshraj