*** अंकुर और अंकुरित मन…..!!! ***
“” तुम उगना चाहते हो…
और मैं बढ़ना चाहता हूँ…!
तुम एक से अनेक…
और मैं केवल संवरना चाहता हूँ…!
तुम और मैं…
हैं एक ओस-बूंद की तरह…!
हम मिलेंगे, बिखरेंगे…
सजेंगे, संवरेंगे, अनजान राही की तरह…!
जिंदगी की सफ़र…
अनवरत चलेंगे…!
जिस राह में जिंदगी ले चले…
चलने की भरसक कोशिश करेंगे…!
हम-तुम चलेंगे धीरे-धीरे…
तुम राह से कुछ मोती संजोना…!
और मैं…
कुछ तिनके उठा लूंगा,
तुम…!
हरियाली की चादर ओढ़,
नदन-मधुवन सा इठलाना…!
मैं भी इन तिनकों से…
छोटी सी कुटिया एक बना लूंगा…!
और…
तेरे ही एक किनारे में,
नन्हे बालक सा छूप जाऊँगा…!
न जाने कब…?
आंधी आ जाए…
कुछ बहरूपिये हवा,
तेरा कमर तोड़ जाए….!
न जाने कब…?
मेरे सपने बिखर जाए…!
पर… हां…!
एक बात सत्य है…!
मैं और तुम…
जब एक हो जायेंगे…!
जिंदगी की हर एक मोड़…
जिंदगी की हर सफ़र,
कुछ आसान हो जायेंगे…!
अन्यथा…
तुम पत्ते-पत्ते हो, बिखर जाओगे…!
और…
मैं तिनके की गिनती में सिमट जाऊँगा…!
मैं तिनके की गिनती में सिमट जाऊँगा…!! “”
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