खुद्दारी ( लघुकथा)
अंकल रुकिए, पीठ पर टोकरी लादे, धूप में जाते हुए व्यक्ति को आवाज देते हुए कौतुक ने कहा।
आवाज़ सुनकर उस व्यक्ति ने पीछे मुड़कर देखा तो एक बीस-बाइस साल का लड़का उसकी तरफ तेज कदमों से चला आ रहा है।
कौतुक को अपनी ओर आता हुआ देखकर वह रुक गया और जब वह उसके पास पहुँचा तो उससे पूछा- “क्या हुआ बेटा?” कोई परेशानी है? किसी तरह की मदद चाहिए?
“नहीं अंकल, मैं तो बस आपसे यह जानना चाह रहा था कि आप क्या बेच रहे हैं?”
“बेटा, मैं तो घूम -घूमकर पापड़ बेचता हूँ। तुम्हें पापड़ चाहिए क्या ? भूख लगी है तुम्हें ?
“नहीं, मुझे भूख नहीं लगी है। मैं तो बस आपकी मदद करना चाहता हूँ।”
“पर कैसे? बेटा!”
“आपको कुछ पैसे देकर।”
“नहीं, बेटा। मैं किसी से फ्री में कुछ भी नहीं लेता। अपनी कमाई से मुझे जो पाँच रुपए मिलते हैं वे मुझे जो खुशी देते हैं वह खुशी दूसरे से फ्री में मिले पचास रुपए नहीं दे पाते।”
कौतुक, आश्चर्य से उस अधेड़ व्यक्ति को बस देखता रह गया और बोला- “मैंने आपको आवाज़ सामान खरीदने के लिए ही लगाई थी। मुझे बहुत तेज भूख लग रही है।
मुझे दस रुपए के पापड़ दे दीजिए।”
डाॅ बिपिन पाण्डेय