“अँखियाँ भेद कहे हैं ” !!
सेवा से संतोष मिले हैं ,
अँखियाँ भेद कहे है !!
बैठ झरोखे आज उमरिया ,
जल का पात्र गहे है !!
जीवन भर श्रम की गठरी ने ,
साथ नहीं है छोड़ा !
अपने कभी लगे अपने तो ,
कभी लगे मुंह मोड़ा !
कभी नयन से खुशी झलकती ,
नयना कभी बहे हैं !!
लोग हँसे हैं जर्जर काया ,
शीतल छाँह कहाँ है !
हमने तो इतना जाना है ,
चल दें , राह जहाँ है !
कभी समय ने थपकी दी है ,
उसमें मस्त रहे हैं !!
सुबह शाम की किचकिच से तो ,
अपना काज निराला !
सेवा संग है , रटन नाम की ,
नहीं हाथ है माला !
पल पल को हम रहे सहेजे ,
कुछ ना और चहे हैं !!
देह से जितना सध जाये है ,
उतना ही दम साधें !
देख रहे हैं झाँक झाँक छवि ,
मोहन राधे राधे !
मुस्कानें अब बनी संगिनी ,
चाहे सपन ढहे हैं !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )