★ संस्मरण / गट-गट-गट-गट कोका-कोला 😊

#मेरे_संस्मरण-
■ जब मैं छोटा बच्चा था
★ गट-गट-गट-गट कोका-कोला 😊
【प्रणय प्रभात】
आज मैं आपको उस दौर की एक दास्तान सुनाने जा रहा हूँ, जब मैं महज 5 साल का था। बात है मई-1973 यानि गर्मी की छुट्टियों की। में अपनी मम्मी और छोटे भाई के साथ जयपुर ने था। जहां सारा ननिहाल एक साथ था। दो मामा, एक मामी, तीन मौसियां और नानी। लगभग एक पखवाड़े बाद हमे लौटा कर लाने के लिए पापा जयपुर पहुंचे। जो जयपुर में मुश्किल से एकाध दिन ही ठहरते थे। उस साल सबने भारी आग्रह कर उन्हें दो-तीन दिन के लिए रोक लिया। हमेशा की तरह एक दिन आमेर भ्रमण और सरला (शिला) देवी के दर्शन के नाम रहा। दूसरे दिन फ़िल्म देखने का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था। टॉकीज था “पोलो-विक्ट्री” और फ़िल्म थी “गंगा-जमुना।” मैटिनी शो में हम सब तांगों में सवार होकर सिनेमा-हॉल में जा पहुंचे। सब एक कतार में बैठे और उनमें पहले नम्बर पर था मैं। उन दिनों सीट नम्बर होते थे या नहीं, यह मुझे याद नहीं। फौज-फाटे के साथ दाखिल होते में सबसे आगे में था। लिहाजा सीटों की पंक्ति के बीचों-बीच जाकर उत्साह से विराजमान हो गया। इसके बाद एक-एक कर सभी मेरे उल्टे हाथ पर बैठते गए। जबकि नेरे सीधे हाथ पर कुछ दर्शक पहले से सीटों पर मौजूद थे। आखिरकार
इंटरवेल का समय हुआ और सिनेमा-हॉल में हल्की सी रोशनी हो गई। तमाम दर्शक उठ-उठ कर बाहर जाने लगे। इसी दौरान हाथ में कोल्ड-ड्रिंक का छींका और ओपनर लिए एक वेंडर अंदर दाखिल हुआ। जिसने कोका-कोला की एक बोतल खोली और स्ट्रॉ (पाइप) लगा कर मेरे हाथों में थमा दी। मेरी बांछें खिल गईं। मैंने आनन-फानन में पाइप मुंह से लगाया और कोका-कोला गटकना शुरू कर दिया। मैं पूरी तन्मयता से कोका-कोला की बोतल खाली करने में लगा था। मन मे एक ख़ास सी फीलिंग थी। मैंने यह भी देखना मुनासिब नहीं समझा कि मेरे अलावा और कौन-कौन कोल्ड-ड्रिंक पी रहा है। चंद मिनट बाद वेंडर खाली बोतलें और पैसे लेने आया तो सीधे हाथ पर बैठे परिवार के एक सदस्य ने एक बोतल कम आने की शिकायत उठाई। जो शायद कोल्ड-ड्रिंक की सप्लाई के दौरान बाहर गया हुआ था और लौटने के बाद अपने हिस्से की बोतल का इंतज़ार कर रहा था। वेंडर एक बोतल कम लाने की बात मानने को राजी नहीं था। उसने हल्की रोशनी के बीच टॉर्च जला कर बोतल गिनाना शुरू किया। तुरंत खुलासा हो गया कि वह बोतल मैं गटक चुका था और डकार ले रहा था। इस खुलासे के बाद पापा ने तत्काल मेरे द्वारा पी गई कोल्ड-ड्रिंक का भुगतान किया। पापा ने औपचारिक तौर पर बाक़ी से भी कोल्ड-ड्रिंक के लिए पूछा। सभी ने तुरंत अपनी-अपनी पसंद से फेंटा और कोका-कोला का ऑर्डर देते ज़रा भी देर नहीं लगाई। कोल्ड-ड्रिंक जैसी चीजों के धुर-विरोधी पापा को शायद सबके कोल्ड-ड्रिंक प्रेमी होने का पता नहीं था। बहरहाल, सारे मज़े से हाथ आई बोतल खाली करने में जुटे रहे और पापा उनकी ओर ताकते हुए मन ही मन में भुनभुनाते रहे। शीतल पेय से हलक और आत्मय ठंडी करते हुए सब मेरी ओर नेह भाव से निहार रहे थे। जिन्हें पापा के माथे पर उभरी लकीरें और फड़कती हुई नाक देखने की कतई फुर्सत नहीं थी। कस्बे से भी छोटे श्योपुर के निवासी के तौर पर कोल्ड-ड्रिंक के स्वाद तक से अंजान में भी पहली बार मुंह और नाक की झनझनाहट से गदगद था। जिसे इस सारे तमाशे के बाद पापा की नाराजगी की वजह कुछ सालों बाद समझ मे आई। जो बाहर की चीज़ों को खाने-पीने के ज़रा भी शौक़ीन नहीं थे और आदतन इसी अनुशासन की उम्मीद बाक़ी से भी करते थे। जो उस दिन अकस्मात टूट गई थी। मज़े की बात यह है कि यह किस्सा मेरे ज़हन में आज भी उतना ही ताज़ा है, जितनी ताज़गी मई की गर्मी में कोका-कोला ने 49 साल पहले दी थी।
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