गांव और वसंत
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
क्या बुरा है जिन्दगी में,चल तो रही हैं ।
इजहार करने के वो नए नए पैंतरे अपनाता है,
जीवन मर्म
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
ग़ज़ल -संदीप ठाकुर- कमी रही बरसों
यहां ला के हम भी , मिलाए गए हैं ,
अपनी सरहदें जानते है आसमां और जमीन...!
आया सावन झूम के, झूमें तरुवर - पात।
हमें पता है कि तुम बुलाओगे नहीं
हिन्दी ग़ज़लः सवाल सार्थकता का? +रमेशराज
उलझनें तेरे मैरे रिस्ते की हैं,
Jayvind Singh Ngariya Ji Datia MP 475661
अंधभक्तों से थोड़ा बहुत तो सहानुभूति रखिए!