*** ” ये दरारें क्यों…..? ” ***

” जब तक था मैं , जल तल में…
होकर मुझ पर सवार…;
चल पड़ते थे गतंब्य को , हर यार..!
कुछ ख़फा लहरों के ज़ोर…
कर गए किनारे मुझे…;
देख ज़मीं पर , कैसे हुई दरार..!
आज यूँ ही होकर लाचार…
तपता हूँ धूप में , हर रोज…;
पता नहीं कब आयेगा नाविक…
हाथ में , लेकर एक पतवार..!
बस खिंची तलवारें नज़र आती हैं आज..
कभी होता था प्रेम भाव , जिन रिश्तों में…;
ओ मीत.. ओ मेरे यार..!
क्यों है ये रिश्तों में , ये खिंचाव..?
क्यों..? नज़र आती है ये दरार..!
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छ.ग.)
२६ / ०२ / २०२३