बेवकूफ
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क्योंकि
बेवकूफ हूँ मै
रख देती हूँ समस्त संवेदनाएँ सामने
जानती हूँ सच्चाई
अहसास भी है ब़ेक़द्र होने का
फिर भी रख देती हूँ
खोलकर मन को
माना इंतज़ार की आदत नहीं मुझको
करती हूँ मगर अंतिम हद तक
फिर आहत होकर
लौट आती है थकी हारी-सी
संवेदनाएँ
क्योंकि नहीं है फितरत
भीड़ में रहने की
वज़ूद को खोकर जीने की
बचा खुचा लेने की
आखिर अहमियत है मेरी भी
देती हूँ रिश्तों में समर्पण
हक़दार भी हूँ पाने की
लड़कर नही लिए जाते सदैव
स्वेच्छा से दिये जाते हैं कुछ
हर बार समेट लेती हूँ
बेकद्र होने से पहले खुद को
क्योंकि स्त्री हूँ
इसलिए बेवकूफ हूँ मैं ।