प्रेरणा
![](https://cdn.sahityapedia.com/images/post/dcce18e8c66fb26372514553e7465d1d_73aa51a1a737bc2ddd0b471b1efe7b38_600.jpg)
प्रेरणा
“पापा, पापा, मैं आजकल बहुत सुंदर लगने लगी हूँ न।” पाँच वर्षीया बेटी ने बहुत ही भोलेपन से कहा।
“हाँ बेटा, लेकिन आपको ऐसा क्यों लगता है ?” पिताजी ने भी उससे वैसे ही भोलेपन से पूछ लिया।
“मम्मी मुझे खाना खिलाते और नहलाते समय अक्सर बोलती रहती हैं। कल तो हमारी टीचर जी भी बोल रही थीं।” बेटी ने कहा।
“हाँ बेटा, आप आजकल बहुत सुंदर लगने लगी हैं। क्योंकि आजकल आप रोज दाल-चावल और रोटी-सब्जी खाने लगी हैं, रोज नहाती भी हैं। इसलिए सुंदर होती जा रही हैं।” पापा ने प्यार से कहा।
“हाँ पापा, आपको पता है, मैं आजकल बहुत समझदार भी हो गई हूँ।” बेटी आज बहुत आत्ममुग्ध लग रही थी।
“अच्छा, आपको कैसे पता चला कि आजकल आप बहुत समझदार भी हो गई हैं ?” पिताजी ने पूछा।
“दादाजी बोल रहे थे, दादी माँ भी कहती हैं।” बच्ची बोली।
बेटी की बातें सुनकर पिताजी को हँसी आ रही थी, परंतु उन्होंने अपनी हँसी को रोकते हुए बच्ची को प्रेरित करने के उद्देश्य से कहा, “हाँ बेटा, आजकल आप स्कूल जाती हैं न। ट्यूशन भी जाती हैं, इसलिए समझदार होती जा रही हैं।”
“हाँ पापा, मैं बहुत सुंदर बनूँगी और समझदार भी।” बेटी स्कूल बैग से पुस्तक निकालते हुए बोली।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़