कुछ मुक्तक -आधार छंद (दोधक)
बाबुल के मन की बिटिया हूँ
आँचल में लिपटी गुड़िया हूँ
है बदली हर सोच पुरानी
मैं नभ की उड़ती चिड़िया हूँ
बात सभी अपनी कहते हैं
भाव जुड़े उसमें रखते हैं
शब्द प्रयोग करें कम वो जो
सागर, गागर में भरते हैं
सैर करें यदि रोज सवेरे
रोग नहीं तन को फिर घेरे
साफ़ किया मन भी अपना तो
जीवन के सब दूर अँधेरे
बात कभी दिल को चुभ जाती
आँख तभी कितना भर आती
तोल तभी कुछ भी तुम बोलो
ये वरना कड़वाहट लाती
हार यहाँ पर जीत बनाना
रोकर बैठ नहीं तुम जाना
कोशिश ही करते रहना है
मंज़िल को तुमको यदि पाना
मौसम ले मत तू अँगड़ाई
सावन की अब तो रुत छाई
लो खिलके अब फूल बनी ये
देख कली हर यूँ मुसकाई
डॉ अर्चना गुप्ता