काश यह मन एक अबाबील होता
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काश यह मन एक अबाबील होता
और उड़ जाता परिंदे की तरह समय से परे
जहां कुल्ल्ढ़ की चाय के साथ
गुजारने को “वख्त” होता था
अब तो वो बिना देखे ही “गुजर” जाते हैं
“वख्त” ही नहीं ठहरने का !!
फिर लौट जाता – उस बचपन में
जहां कर पाता पूरे वह सारे सपने
अरमान अधूरे खेलता वो सारे खेल ,
मिल पाता उनसे कह देता मन की बात
और फिर काट देता मन –
परिंदे के पर और उड़ नहीं पाता
ठहर जाता वहीँ काश यह मन
एक परिंदे की तरह जो उड़ जाता
और समय से परे फिर लौट जाता बस
लौट के नहीं आता !!