उसी पथ से
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अब उसी पथ से चले आना
निसदिन स्याह सी सांझ ढले
कितनी कलियाँ राह में बिछी
चंचल दामिनी नभ में सजी
कँटील पथ तो रोकता था
यदा कदा टोकता भी था
तरु इक निमिष भी न झुक सके
पग तनिक क्षणभर न रूक सके
मस्तक पर नीला अम्बर तना था
श्वेत कोई सितारा बना था
तारों की बारात देखते
प्रीति को यूँ थाम लेते
प्रेम सी इक मृगमरीचिका
सरस्,सरल कोई वीथिका
शीतल जल से प्रखर बह जाना
अब उसी पथ से चले आना।।
✍”कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक