sp150 नहीं कोई सर्वज्ञ
sp150 नहीं कोई सर्वज्ञ
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नहीं कोई सर्वज्ञ यहां है थोड़ी थोड़ी कमी है सब में
जो खुद को संपूर्ण मानता छिपी हुई उसमें नादानी
दूर भरे सागर से लाकर भरता है तालाब में पानी
तर्क सार्थक सत्य ना सुनता करता है अपनी मनमानी
कलम चल रही अपनी गति से लिखती है इतिहास समय का
उसकी धार बहुत पैनी है नहीं समझ पाता अज्ञानी
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बदल रहा है समय का खेला हम भी आकलन बदल रहे हैं
अपने और पराए वाले समीकरण भी बदल रहे हैं
बदल गए हैं मापदंड सब लेकिन शाश्वत सत्य यही है
स्वार्थ हुआ है रक्त पे भारी वो संस्करण भी बदल रहे हैं
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पीर पयम्बर ढूंढ रहा हूँ खुद में ईश्वर ढूंढ रहा हूँ
अपने ही घर में बैठा मैं अपना ही घर ढूंढ रहा हूँ
जहाँ मिले मन को अपनापन मैं वो मन्जर ढूंढ रहा हूँ
धसी हुई गोली को निकालू अपना खंजर ढूंढ रहा हूँ
ढूंढ हर कोना धरती का नहीं समन्दर ढूंढ रहा हूँ
जहाँ मिलेगा मोती मुझको ऐसा सागर ढूंढ रहा हूं
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अजब खेल है इस जीवन का किसे कहां पर ढूंढ रहा हूं
झूठ की लहरें हरसू फैली सच का समंदर ढूंढ रहा हूं
जो है मेरे मन के अंदर उसे कहां पर ढूंढ रहा हूं
यायावरी गजब की देखो खुद अपना घर ढूंढ रहा हूं
चला गया जो कभी ना आया उसको क्यों कर ढूंढ रहा हूं
मन की कैसी लाचारी है नींद में बिस्तर ढूंढ रहा हूं
धोखा मिलता हर बस्ती में सच की चादर ढूंढ रहा हूं
सागर तट पर बैठ अकेले खुद को अक्सर ढूंढ रहा हूं
रहजन ना बन जाए बदलकर ऐसा रहबर ढूंढ रहा हूं
मक्कारो की इस दुनिया में क्यों पैगंबर ढूंढ रहा हूं
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डॉक्टर इंजीनियर
मनोज श्रीवास्तवsp150