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खोले हैं जज्बात के, जब भी कभी कपाट
RAMESH SHARMA
चखा कहां कब इश्क़ ने,जाति धर्म का स्वाद
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दुखदाई इससे बड़ा, नही दूसरा घाव
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उनसे ही धोखा मिला ,जिन पर किया यकीन
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क्या होता है क़ाफ़िया ,कहते किसे रदीफ़.
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सोचा जिनका आज से,कभी न लूँगा नाम
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भावना मर्म की, होती नहीं विशुद्ध
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चले शहर की ओर जब,नवयुवकों के पाँव।
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कहा कहां कब सत्य ने,मैं हूं सही रमेश.
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पेड़ लगाओ एक - दो, उम्र हो रही साठ.
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जुमला मैने एक जो, ऊपर दिया उछाल
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जिस पनघट के नीर से, सदा बुझायी प्यास
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उनसे रहना चाहिए, हमें सदा आगाह
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रहती जिनके सोच में, निंदा बदबूदार .
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लगे स्वर्ण के आम
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आए थे जो डूबने, पानी में इस बार ।
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हैं जो हाथ में,लिए नमक शैतान .
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लंबा धागा फालतू, कड़वी बड़ी जुबान .
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बीज निरर्थक रोप मत ! , कविता में संस्कार।
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खिड़की रोशनदान नदारद, (सरसी छंद )
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कंडक्टर सा हो गया, मेरा भी किरदार
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लगा समूचा नाचने , जुगनू का परिवार
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गया अगर विष पेट में, मरे आदमी एक ।
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बहती जहां शराब
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जयचंदों का देश में,फलता नही रिवाज.
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अनजाने से प्यार
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घट जाएगा शर्तिया, बुरा आदमी एक
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समझदार करने लगे,अर्थहीन जब बात .
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नाचेगा चढ़ शीश पर, हर ओछा इंसान
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मंदबुद्धि की मित्रता, है जी का जंजाल.
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दुख दें हमें उसूल जो, करें शीघ्र अवसान .
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देख ! सियासत हारती, हारे वैद्य हकीम
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तबियत मेरी झूठ पर, हो जाती नासाज़.
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रहे मुदित यह सोच कर,बुद्धिहीन इंसान
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बदल गई है प्यार की, निश्चित ही तासीर।।
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भरा कहां कब ओस से किसका कभी गिलास
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जीवन में रहता नहीं,जिसके जोश उमंग
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थूकोगे यदि देख कर, ऊपर तुम श्रीमान
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सत्यानाशी सोच जिमि,खड़ी फसल पर मेह .
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होशियार इंसान भी ,बन जाता मतिमंद
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बांटेगा मुस्कान
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नही रहेगा मध्य में, दोनों के विश्वास
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चाहे जितना भी रहे, छिलका सख्त कठोर
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जिनका मैंने हर समय, रखा हृदय से ख्याल
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करते हो करते रहो, मुझे नजर अंदाज
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बिना पढ़े ही वाह लिख, होते हैं कुछ शाद
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खाए खून उबाल तब , आए निश्चित रोष
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दिल के जैसा आज तक, नजर न आया खेत
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संस्कार की खिड़कियां, हुई जरा क्या बंद
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सीखा रहा उड़ना मुझे, जिस गति से सैयाद ।.
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