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8 Sep 2018 · 1 min read

आवारा बादल

आवारा बादल
मैं,आवारा बादल का टुकड़ा हूँ
भटका रहे हैं, मुझको
हवा के उच्छृंखल झोंके
यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ
पथभ्रमित कर,दे देकर धोखे।
क्या पता,कभी बरस भी पाउँगा
बनकर रस की धार,
जीवन संचार, अमिय फुहार,
सौभाग्यशालिनी वसुन्धरा के अंचल में,
सघन,चौरस,समतल में,
दप दप कर विहँसते खेत में।
या,यूँ ही बरस मिट जाऊँगा
किसी उर्वराहीन, ऊसर रेत में।
या बरस भी न पाऊँ
ये बेदर्दी हवा के झोंके
फिर से भटका न दे
जिन्दगी इसी के हाथ है
जब चाहे चलने दे
जब चाहे रोके।
ऊब गया इस भटकाव से
बेमुरौवत हवा के झोंके
तेरे फरेबी बर्ताव से।
एक आरज़ू है-मुझे एक मुकाम दे
कबतक तिरता रहूँ यूँ ही आकाश में
बेशरम कुछ तो अंजाम दे।
भले ही टकरा दे मुझको
ले जाकर किसी पर्वत,पठार से
अस्तित्व की कुछ फिकर नहीं
चूर चूर होकर भी,
बरस जाऊँगा जलधार से।
भले ही पर्वत की तलहटी
में पड़े पत्थरों पर,
या पथरीले भू में उगे झाड़-झंखाड़ में।
एक सुकून तो मिलेगा पागल।
हाय,ये विडंबना
यही नियति है तेरी-
आवारा बादल।
-©नवल किशोर सिंह

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