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10 Jun 2018 · 1 min read

डर नहीं जाता

डर नहीं जाता
०-०-०-०-०-०-०

न कहलाता कभी वो बुत तराशा ग़र नहीं जाता ।
इबादत भी नहीं होती नवाया सर नहीं जाता ।।

रवानी हो नहीं जिसमें उसे दरिया नहीं कहते ।
निकट दरिया ही’ जाता है कभी सागर नहीं जाता ।।

न देखो पाँव के छाले तलाशो है कहाँ मंजिल ।
सिकंदर है वही जो जंग से डर घर नहीं जाता ।।

जवानी चार दिन की है उतरना एक दिन पानी ।
सुनहरा हाथ से छोड़ा कभी अवसर नहीं जाता ।।

लिखा कुछ भी नहीं खाली सफे सब जिन्दगी के हैं ।
कलम भी हाथ में है पर लिखा अक्सर नहीं जाता ।।

भरोसा कुछ नहीं‌ किस मोड़ पर साँसें ठहर जायें ।
मग़र इस मौत का दिल से निकल कर डर नहीं जाता ।।

-महेश जैन ‘ज्योति’
मथुरा ।
***

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