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16 May 2018 · 1 min read

कविता

सुनों, शहरीकरण की आधुनिक चकाचोंध से परे कभी कोशिश की है नारी के अस्तित्व को पहचानने की, जानने की। उस स्त्री शक्ति की जो सिल्क, मलमल और फैशन के क्षितिज पार है,जिसका बस बोझा ढोना ही जीवन आधार है।वह अबला सबल होकर खड़े होने का प्रयास करती है।

सिर पर बोझ लिये, नँगे पाँव बियाबान बीहड़ में चलती है।

भूखी प्यासी, दो जून भोजन की आस में,

फटी धोती से काया को ढकती है।

दिनकर के क्रोध को नित सहती,

लाचार हो धूप में जलती झुलसती है।

जिंदगी की तपती रेत में, चने सी भुनती है,

कंटीले रास्तों को नापती,सूखे होठ हांफती।

थकान से टूटी काया,झुलसता यौवन

लांछन अपमान और धुत्कार से पीड़ित मन।

छिपाकर रखती फटे अधरों पर मुस्कान,

फिर भी दिख जाते दुख सब छन छन ।

नीलम शर्मा

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