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8 Apr 2018 · 1 min read

कहीँ आदत वो, कभी आफत हो

बहर-122 22 122 22

कहीँ आदत वो, कभी आफत हो
कि तुम्हेँ देँखे, कि ये शरारत हो

फ़ज़ल थी शामेँ, डुबे अर्क जैसे
चल और कहीँ फिर कहीँ नौबत हो

दिल के तासीर पर क्या फर्क क्या है
तबाह-सी यूँ ही, रखी मूरत हो

बढ़े थे जब सुर्ख बदन मेँ तर को
पियेँ थे माहुर, जैसे शरबत हो

ख़लिश की बात आम हैँ बातो मेँ
अब इन्हेँ भूलेँ, अब नज़ाफ़त हो
– शिवम राव मणि

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