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30 Mar 2018 · 1 min read

हवा कुछ बेतुकी चलने लगी है

हवा कुछ बेतुकी चलने लगी है
फिज़ां भी मजहबी होने लगी है

जलाए थे दिये जो रौशनी को
उन्हीं से आग अब लगने लगी है

किसी ने हाल क्या पूछा हमारा
दिलों में आस अब जगने लगी है

गरीबी को हमारी मत छलो अब
हमारी वेदना बढ़ने लगी है

चलो अब बंद हो जाएं घरों में
यहाँ इन्सानियत मरने लगी है

अचानक उँगलियाँ क्यूँ उठ रही हैं
सियासत करवटें लेने लगी है

बचेगी किस तरह अब ये इमारत
यहाँ बुनियाद ही हिलने लगी है

पकाया जिन्दगी भर जिसने मुझको
मगजमारी से वही पकने लगी है

रचाए कृष्ण अब ये रास कैसे
यहाँ नौटंकियां सजने लगी हैं.

श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद.

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