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10 Mar 2018 · 2 min read

सरहद

सरहद पर जैसे ही किसी के आने की सुगबुगाहट हुई। अँधाधुंध गोलियां चल पड़ीं। घुसपैठ करती मानव आकृति कुछ क्षण के लिए तडपी और वहीं गिर पड़ी।

“वो मार गिराया साले को …” वातावरण में हर्षो-उल्लास के साथ स्वर उभरा। दोनों सिपाहियों ने अपनी-अपनी स्टेनगन का मुहाना चूमा।

“ज़रा पास चलकर देखें तो घुसपैठिये के पास क्या-क्या था?” एक सिपाही बोला।

“अरे कोई ग्रामीण जान पड़ता है बेचारा, शायद भूले-भटके से सरहद पर आ गया,” तलाशी लेते वक़्त मृतक के पास से सिवाय एक ख़त के कुछ न निकला तो दूसरा सिपाही अनायास ही बोला।

“ख़त मुझे दो, मैं उर्दू पढना जानता हूँ।” पहले सिपाही ने ख़त हाथ में लिया और ऊँचे सुर में पढने लगा–

“प्यारे अब्बू,

बी० ए०/ एम० ए० करने के बाद भी जब कहीं ढंग की नौकरी नहीं मिली और जिम्मेदारियां उठाते-उठाते मेरे कंधे टूट गए, लेकिन दुनिया जहान के ताने कम नहीं हुए तो आसान मौत मरने के लिए सरहद पर चला आया हूँ। मैं इतना बुजदिल हूँ चाहकर भी खुदकुशी न कर सका … पर घुसपैठ करते वक़्त यक़ीनन हिन्दोस्तानी सिपाही मुझे ज़रूर ज़िन्दगी की क़ैद से आज़ाद कर देंगे। ऊपर जाकर खुदा से पूछूँगा, तूने हमें इंसान बनाया था, तो ढंग की ज़िन्दगी भी तो देता। मुझे माफ़ करना अब्बू, तुम्हारे बूढ़े कन्धों पर अपने परिवार का बोझ भी डाले जा रहा हूँ।

तुम्हारा अभागा / निकम्मा बेटा
रहमत अली

दूसरे सिपाही को रहमत अली की शक्ल में अपने बड़े भाई विक्रम की शक्ल नज़र आने लगी, जिसने दो बरस पहले छत के पंखे से फन्दा लगाकर आत्महत्या कर ली थी। हिन्दी में पी.एच.डी. करने के उपरान्त भी विक्रम भाई बेरोजगार था। यही अक्सर उसके पिता दीनदयाल और विक्रम भाई के बीच लड़ाई झगड़े बहस का कारण बनता था, उस रोज़ बेरोजगार भाई विक्रम और सेवानिवृत्त पिता जी की जमकर बहस हुई थी।

“नालायक, तू मर क्यों नहीं जाता?” विक्रम भइया के लिए पिता द्वारा कहे गए यह अंतिम वाक्य उसके कानों में गूंजने लगे, सामने फंदे से झूलता विक्रम भाई का शव। उसे कई दिनों तक झकझोरता रहा। उसने अपने कानों में हाथ धर लिए और वो चीख उठा, “नहीं! विक्रम भइया।”

“क्या हुआ? बड़े भाई की याद…. ” पहले सिपाही ने उसे झकझोरते हुए पूछा। उसने कई बार विक्रम और अपने पिता की बातें उसे बताई थी।

“हां, विक्रम भाई की याद आ गई!” दूसरे सिपाही ने बड़ी मायूसी से रोते हुए कहा! उसके आंसू आंखों से निकल कर गालों तक पहुंच चुके थे।

तभी दोनों सिपाहियों ने देखा, परिंदों का एक समूह पकिस्तान से उड़ता हुआ, आसानी से हिन्दोस्तान की सरहद में दाखिल हो गया और उन्हें किसी ने भी नहीं रोका।

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