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19 Jan 2018 · 1 min read

अभिलाषा

कुछ किया नहीं ऐसा,पर विशिष्ठ स्थान मिले,
ऐसी चाहत लिये जी रहा हूँ मैं।
शुभ कामनाओं को ओढे,कल्पना लोक में रहकर,
यथार्त के धरातल पर जब रखा कदम,
तो दिल से निकली यह आह,
क्यों,किस लिये,बोझ बन कर जी रहा हूँ मैं।
जीवन के कटु सत्य को,भोगा तो जाना,
इतना तो आशाँ नहीं है कुछ भी पाना,
फिर क्यों किसी के हक पर ,
यों,नजरें टिकाये हुए था मैं।
अब और नहीं,पर है जो वक्त बाकी,
वह हो सकता है अपना,
तो मानवता की खातीर, कुछ करके दिखा दूँ,
ऐसी अभिलाषा संजोए,
आगे बढना चाह रहा हूँ मैं।
मुझको भी मिले,एक ऐसा ही अवसर,
दीन दुखियों की खातीर,बढाऊँ कदम अपना,
जितना भी हो सके,निभाऊँ,निज धर्म अपना,
पसीजे दिल मेरा भी,दुसरों की पीडा से,
अभिलाषा नहीं,अब यह सकंल्प है अपना।

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