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14 Dec 2017 · 1 min read

पुनर्निर्माण

इस जग को दरकिनार कर
संपूर्णता का निःशेष श्रृंगार कर
खुद को रोज मिटाता हूँ
हर दिन नया बन जाता हूँ
चाहता हूँ घरद्वार बदलना
प्रति पग पर संसार बदलना
जीवन जग का उन्माद बदलना
मृतलोक का मान बदलना
अनाश्रित हो आत्मनिर्भर बनना
परिधि न बन धुरी बनकर
पुन:चक्र कुचक्र बदलना
शेष विशेष तुम बात समझ
कह न पाए वह राज समझ
बिखरे हो समेट चल
खुद को लय कर सको तो चल।

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