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10 Nov 2017 · 2 min read

सुनो रंगबाज

मेरी कलम से…
सुनो
रंगबाज अशोक
हाँ,
मैं तुम्हारी माँ
गंगा
नहीं पहचान पाये ना
तुम अपनी माँ को भी
थोड़ी कुरूप
हो गई हूँ
और थोड़ी
अशक्त भी
इसलिये
आज मुझे पहचान नहीं
पाये
कल मुझे पहचान कर
भी इंकार कर दोगे
मुझे पता है
क्योंकि मैं जानती हूँ
कल मेरा अस्तित्व
नष्ट हो जायेगा
मैं ढ़ल रही हूँ
विषाक्त काले रंग में
कल कारखानों
गंदे नालों
शहरी कचड़ों
के कारण
हाँ मैं अब
गरल हो रही हूँ
मर रही हूँ मैं
अब तो आकाश में
अगोरता सूरज
भी मुझ में डुबने से
कतराता है
डरता है कहीं
अकारण ग्रहण
ना लग जाये
तुम तो मेरी चौकसी
करते हो
पहुँच जाते हो गोता लगाकर
अठखेलीयाँ करते
मेरे हृदय तक
तुम देख लेतेे हो मेरे
उदक से इतर
विरह में बहते
खारा नयनजल को
समझते हो ना
मेरी व्यथा
मेरी रूदन
सुनते हो ना
मेरी असहाय
सीत्कार को
मैं तो शापित हूँ
इसलिए तो चुप हूँ
पर तुम क्यों नहीं
समझाते इस
अल्पमति समाज को
जो मेरी
काया को कलंकित
दूषित करते है
मल मूत्र
कचड़ाे से
तुम्हे भी तो खरोंच
आती होगी
काँच कील
काटों से
जब तुम समाते
होगे मेरे गर्भ में
किसी डूबते जीवन
को बचाने
क्या तुम्हें पीड़ा नहीं होती
या फिर इस स्वार्थी समाज को
ना ही चिंता है
और ना ही चिंतन है
कहाँ
मैं अब बह
पाती हूँ
कंचन पवित्र
अानंदमय होकर
सिहर जाती हूँ
मैं अपनी
कुरूप काया देखकर
क्या एक वचन
दोगे मुझे बचाने की??
मैं फिर से स्वच्छ निर्मल
होना चाहती हूँ
मैं चाहूँ तो खुद को
बचा सकती हूँ
विकराल रूप दिखा
सकती हूँ
मानव रहित कर
सकती हूँ
इस पृथ्वी लोक को
पर मैं एक माँ हूँ
समझती हूँ अपने
बच्चों की नादानी को
इसलिए क्षमा कर देती हूँ !!!!
चंदन सोनी

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