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18 Sep 2017 · 1 min read

****बूंद****


‌समुन्दर में कोई खुली सीप
‌जब समेट लेती है अपने अंक में।
‌तब अंतराल में मोती का रूप ले लेती है वही बूंद।
‌श्रावण की मधुरम रिमझिम में
‌प्रियतम के विरह में सुलगते अंतस से
‌कजरारी पलकें डबडबाती हैं
‌तब उस पल मोतियों से अश्क बन जाती हैं वही बूंद।
‌शुष्क धरा पर कहीं छिपे एक नन्हे से बारीक बीज पर जब पड़ती है वह
‌तब स्फुटित हो उठती है एक नन्हे नवांकुर के रूप में वही बूंद।
‌किसी विरहिणी के प्रिय जब बिन कहे आ जाते हैं उसके द्वारे
‌तब मीठी-मीठी शीतलता देती हैं सर्व सुहागन के आतुर ह्रदय को
‌बरखा की यही नन्हीं नन्हीं बूंद।
‌शिशिर ऋतु में सतरंगी प्रसूनों के रक्ताभ स्निग्ध कपोलों पर फिसल कर
‌ओस बन जाती हैं यही बूंद।
‌बड़ी ही बहुरूपिणी है वर्षा की
‌ ये प्यारी नन्ही-सी बूंद।

—-रंजना माथुर दिनांक 22/07 /2017
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©

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