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18 Sep 2017 · 1 min read

जैसे काँटा कोई चुभा सा है

आज की हासिल
ग़ज़ल
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2122 1212 22/112
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साथ है वो मगर जुदा सा है
राज़ दिल में कोई छुपा सा है
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जब से देखी तुम्हारी ये आँखें
जैसे छाया कोई नशा सा है
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देख रखना सँभाल कर इसको
दिल मेरा .एक आइना सा है
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अब न रखना तू कोई भी मरहम
दर्दे-दिल ही मेरा दवा सा है
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अब्र में चाँदनी छुपी बैठी
चाँद उसपे फिदा-फिदा सा है
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कैसे रौशन हो घर ग़रीबों का
मुद्दतों से दिया बुझा सा है
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आप आए तो लग रहा मुझको
फूल सहरा में फिर खिला सा है
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आह निकली हमारे इस दिल से
जैसे काँटा कोई चुभा सा है

गिरह
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जो कभी एक थे तो फिर “प्रीतम”
दरमियां क्यूँ ये फासला सा है
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
17/09/2017
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