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17 Sep 2017 · 1 min read

जाग रे मुसाफिर - मुक्तक

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“जाग मुसाफिर हुआ सवेरा,
हो गयी भोर हर अंधेरा,
यहाँ न कोई टिका है कभी
ये दुनिया इक रैन बसेरा।
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क्या तेरा और क्या है मेरा।
इक दिन छोड़ देना है डेरा,
उस मालिक को भज ले ओ मूर्ख ,
जो है सच्चा संरक्षक तेरा।”

– – रंजना माथुर दिनांक 20/06/2017
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
©

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