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27 Aug 2017 · 1 min read

तगादे आ रहे घर तक

@ग़ज़ल ।तगादे आ रहे घर तक ।@

लिया क़र्ज़ा रक़ीबों से अमादे आ रहे घर तक ।
ग़रीबी की दशा देखो तगादे आ रहे घर तक ।।

ख़बर उनको मिली शायद गया बाज़ार कुछ लेने ।
न पाया काम पर देरी से सादे आ रहे घर तक ।।

शहर की हर दुकानों पर मिरी तौहीनियाँ कहकर ।
किये ग़ुस्से को बेक़ाबू खरादे आ रहे घर तक ।।

पड़ी फ़टकार सुनता मै किये बेबाक़ सर नीचे ।
मिरी इज्ज़त को पैरों तल हि रौंदे आ रहे घर तक ।।

चिरागों तक नही जलते की उनके घर अंगीठी है ।
मिरे जितने के कर्ज़े के बुरादे आ रहे घर तक ।।

लगा बेशक़ हुजूमी से मिरे जज़्बात को धक्का ।
जुबां के ख़ंजरों से दिल कुरेदे आ रहे घर तक ।।

मुझे मनहूस सी लगती ख़ुदी की जिंदगी रकमिश ।
बुरे ख्यालों से बोझिल से इरादे आ रहे घर तक ।।

राम केश मिश्र

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