भज गोबिन्दम् मूढ़-मते ! /
|| भज गोबिन्दम् मूढ़-मते ! ||
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||ज्ञान का भ्रम ||
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जो व्यक्ति अज्ञानी है वह ज्ञानवान व्यक्ति का शत्रु नहीं हो सकता बल्कि जो यह दिखावा करता है कि मै ज्ञानी हूँ,उसका यह भ्रम ही उसके ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि इस संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो संसार के ज्ञान रुपी सागर को अपने मन-मस्तिष्क में पूर्णतः समाहित कर ले जबकि इस सत्य को नकारते हुए कुछ लोग अपने आप को पूर्ण ज्ञानी मानते हैं और यह भ्रम उनमें इस तरह व्याप्त हो जाता है कि वे जीवन की हर नकारात्मकता को ही सत्य की कसौटी पर कसने का हर असफल प्रयास करते रहते हैं अनवरत ।
कहने का आशय यह है कि ऐंसे लोग केवल “हवाई किले बनाते रहते हैं” , चलते हुए स्थिर हो जाते हैं और अचल होते हुए यात्राएँ करते हैं यानि अनवरत आशंकाओं मेंं जीना इनकी आदत और नियति बन जाती है ।
ये लोग अपने आप को ही अंतिम सत्य मानकर चलते हैं इस कारण इनका स्वभाव निरंतर अहंकार की वृद्धि करता जाता है और ये धीरे-धीरे समाज से कटते चले जाते हैं परंतु ये अपने भीतर कभी नहीं झांकते, उल्टे समाज को ही दोषी ठहराते हैं ।
ऐंसे लोगों मेंं हमारे सामने सबसे बड़ा उदाहर ‘रावण’ है जो स्वयं ही अपने आप को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ा ज्ञानी मानता था और यह भ्रम उसे मृत्यु-पर्यंत रहा ।
फलस्वरूप इस भ्रांत धारणा के कारण उसके जीवन में छद्म अहंकार ने प्रवेश कर अपना उत्तरोत्तर विकास किया और यह अहंकार ही उसके पतन एवं विनाश का कारण बना ।
इसलिए वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का यह कथन कि ” ज्ञान का सबसे बड़ा शत्रु उसका अज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान होने का भ्रम है ”
अपने आप में सही एवं प्रमाणित कथन है ।
अब एक और बात कि हम किसे ज्ञानी कहें ?
बड़े-बड़े मंचों पर लच्छेदार भाषण देने बाले नेताओं को या प्रशासनिक पदों पर आसीन अधिकारियों को या गीता के श्लोक रटकर सुनाने बाले बच्चों को याकि अल्पवय में भागवत वाचन करने बाल-शुक या फिर टीचर्स को या पुरोहितों को ।
कदाचित ! ये सब अपने स्तर पर एक जानकार मनुष्य अवश्य हो सकते हैं किंतु इन सब में मनुष्येतर वह सब कमियाँ उपस्थित रहती हैं जो एक अशिक्षित मनुष्य में होती हैं ।
ज्ञान का एक अर्थ जानने से है अर्थात् जिसने स्वयं कुछ जाना है वह उस अर्थ में ज्ञानी है किंतु समग्रता में नहीं । पर जिसने स्वयं को जान लिया है वही सच्चे अर्थों में ज्ञानी है, ऐंसा ज्ञानी अशिक्षित भी हो सकता है जैसे कि “कबीर” और ऐंसा ज्ञानी शिक्षित भी हो सकता है जैसे कि “चैतन्य महाप्रभु” ।
कहने का तात्पर्य यह कि जो व्यक्ति अपने आपको निरंतर खाली करता जाता है एक दिन उसके भीतर सद्ज्ञान का प्रवेश अवश्यंभावी है किंतु यदि आप ईर्ष्या आदि विकारों से भरे रहते हैं तो आप एक बड़े जानकर तो अवश्य हो सकते हैं किंतु ज्ञानी नहीं,आप प्रसिद्घ भी हो सकते हैं । किंतु ज्ञान वही है जो आपको अपने भीतर झाँकने का अवसर भी देता है और अहंकार से पूर्ण मुक्ति भी ।
इसलिए आपको कितनी-कितनी जानकारी है, आपने कितनी-कितनी किताबें पढ़ीं हैं, या कितनी-कितनी कठिन परीक्षाएँ उत्तीर्ण की है ? आदि-आदि व्यर्थ की बातों में उलझकर अपने आप को ज्ञानी मानने के संभ्रम से बचाईए और नित्य हरिगुण गाईए ।
भज गोबिंदम् मूढ़-मते !
कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा-नीर ।
पाछें-पाछें हरि फिरें,कहत कबीर-कबीर ।
–जय श्री कृष्ण-
— ईश्वर दयाल गोस्वामी