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16 Jul 2017 · 1 min read

ग़ज़ल

हर सच की ये सच्चाई है
आगे कुआं तो पीछे खाई है

कैसे चीरा दिल पहाड़ का
राह उसने खूब बनाई है

अब नहीं हूँ मैं तनहा यारों
मेरे साथ ये तन्हाई है

भीड़ जमा करना है मकसद
ऐसी भी क्या रहनुमाई है

डर गया वो अपने साये से
जब सहरा में रात बिताई है

समंदर उसे न लगा मुनासिब
परिंदा वो इक सहराई है

बिखरे हुए ख्वाब हैं ज़िंदा
शामे – ग़म तेरी दुहाई है

जल रहा है बदन वादी का
पडोसी ने आग लगाईं है

मैं चुप नहीं बैठूंगा हरगिज़
दहशत में क़ैद खुदाई है

पत्थर से तो खून बहेगा
गुफ्तगू बस करिश्माई है

नफरत से न बुझेगी ज्वाला
मुहब्बत ही एक दवाई है

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