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14 Jul 2017 · 2 min read

दोषी कौन...?

दोषी वो औरतें नहीं वो बेटी और बहनें नहीं जो आज नग्नता को आधुनिकता मान बैठी हैं , दोस्तों दोषी हम हैं दोषी आप है सही अर्थों में हम ,आप हमसभी इस समस्या के समान रूप से उतरदायी हैं। कारण ये आधुनिकता का नग्नता रुपी बीज बचपन से ही हम अपनी बच्चीयों के मनोमस्तिष्क में भर रहे है। यह पहनावे से प्रारंभ होकर विचारों में सम्मिश्रित हो रहा है और हम आनंदातिरेक का अनुभव कर रहे है फिर जब मामला हाथ से फिसलता चला जाता है तो समाजिकता का दुहाई देकर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर लेते है।
आज बच्चे माँ बाप को कचरे का ढेर समझने लगे हैं तो इसमें भी कहीं ना कहीं हम ही जिम्मेदार है, हमने बच्चे को जन्म लेते हीं क,ख,ग, से नाता छुड़ा A,B,C के खूटे में बांध दिया , पापा को डेड(मरा हुआ) माई या माँ को मम्मी (ताबुत में पड़ी लाश) बना दिया और बच्चे की अंग्रेजीयत पर आनंदित, प्रफुल्लित होने लगे।
हमारे भारतीय समाज में कितने हीं रिश्ते हैं जैसा रिश्ता उसके अनुरूप उसका नामकरण हुआ है जैसे पिता के भाई चाचा,काका या ताऊ, माँ का भाई मामा, पिता की बहन फुआ या बुआ इनके पति फुफा, माँ की बहन मौसी इनके पति मौसा, अंग्रेजीयत में सबके सब अंकल व आंटी यहाँ किसी भी रिश्ते का कोई परिभाषा नहीं सब एक जैसे । भैया या बाबु में जो प्रीत था वो समाप्त अब बड़ा या छोटा सब ब्रदर,दीदी या बबी के स्थान पर केवल सीस, नाना नानी, दादा दादी के जगह एक ग्रेण्डपा ।
संस्कृत को हम पिछड़ा समझ कर पहले ही त्याग चूके हैं
गीनती एक दो तीन को वन टू थ्री नीगल गया।
हम आज भी पुराने लोगों को देखते है वो जब श्री गणेश करते हैं तो राम दो तीन अब संस्कृति राम में मिलेगी या वन टू थ्री म़े मिलेगी जिसका शाब्दिक अर्थ हीं है भाग जाओ( अपने घर , परिवार, परम्परा से दूर)
जब हम अपने बच्चों को उनके जीवन के आरम्भ से ही नग्नता रुपी आधुनिकता परोसा रहे है अंग्रेज बना रहे हैं तो फिर हमें क्या अधिकार है उनके आचरण, रहन – सहन, बोली – विचार पर आक्षेप करने का। जो जैसे चल रहा है चलने दीजिये वर्ना फिर……..
समाज सुधारक बनने से कहीं ज्यादा आसान हैं हम अपने घरों में भारतीय संस्कृति जो हमारी परम्परायें है का निव आज से हीं रखे।
अगर हमने ऐसा किया तो लाजमी है हमें देख कुछ और लोग इस रास्ते पर चल पड़े। वर्ना ऐ नग्नता का नाच ब्यवहारों में विचारों में, पहनावे में, रिस्तों के निर्वहन में प्रत्येक जगह यूं ही दिखता रहेगा और धिरे धिरे अपने चरम को स्पर्श कर जायेगा। हम हाथ मलते रह जायेंगे।
अतः विचारक बनाने से बेहतर होगा यह शुभ कार्य हम आज और अभी से प्रारंभ कर दे और समाज अपनी संस्कृति के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें।
बाकी आप सभी श्रेष्ठ जन हमसे बेहतर जानते है…।
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”

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