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12 Sep 2016 · 1 min read

दरमियाँ अपने ये पर्देदारियाँ

जल रहीं जो याँ दिलों की बस्तियाँ
कब गिरीं इक साथ इतनी बिजलियाँ

बातियों में अब नहीं लज़्ज़त रही
अब बिगाड़ेंगी भला क्या आँधियाँ

अंजुमन भी किस तरह का अंजुमन
हों न गर तेरी मेरी सरगोशियाँ

जिस जगह भी मैं कभी आया गया
उस जगह कितनी हैं पहरेदारियाँ

गो के अब तक तो नहीं ऐसा हुआ
हैं बहुत ख़ामोश सी ख़ामोशियाँ

क्यूँ लुटा मैं दे रहीं इसका जवाब
किस अदा से आपकी बेताबियाँ

तब कहाँ थे आप मेरे ग़मग़ुसार
जब मुझे डंसती रहीं तन्हाइयाँ

निभ नहीं पाएँगी ग़ाफिल जी कभी
दरमियाँ अपने ये पर्देदारियाँ

-‘ग़ाफ़िल’

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