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11 Sep 2016 · 1 min read

गीतिका

गीतिका
उम्र बीतती जा रही, भज ले मुरलीधर।
छोड जगत की चाकरी, बन हरि का चाकर।
वही सत्य शाश्वत अचल, प्रेमार्णव सुखदा।
एक वही रस कुंभ है, मधुराधिपति मधुर।
हरता साँवल कांति से, स्वर्णिम हर आभा।
है नयनों की तृप्ति वह , करता उर उर्वर।
केश कांति कटि करधनी, कलरव कुंडल का।
वक्ष केलि वनमाल की, तन पर पीतांबर।
चपल नयन चिंता हरण, पद पथ मुक्ति अटल।
वह जग के बाहर विशद, वह उर के अंदर।
ज्ञान ध्यान तप योग कुछ, नहीं प्राप्ति साधन।
वशीभूत वह प्रेम से, होता है ईश्वर।
काम काल त्रिभुवन विजित, बुध्देतीत महा।
पद आश्रित भय मुक्त है, शरण विमुख को डर।
पद रज याचक दास है, करो कृपा मोहन।
‘इषुप्रिय’ जिसकी अंक में, खेले सचराचर।
अंकित शर्मा ‘ इषुप्रिय’
रामपुर कलाँ,सबलगढ(म.प्र.)

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