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19 Jun 2017 · 1 min read

गीतिका

प्यार मेरा एक नदी था,वो बूँद हो गया
मैं खुशियों का ताज था खण्डर हो गया

सब कुछ बड़ा सा, मैं चाहते चाहते हुये
दो हजार के नोट से छुटा पैसा हो गया

चिन्ता,फिक्र,परेसानी,जिमेदारी कुछ भी नही
लेकिन आज हम भी इनके कारोबारी हो गये

बिल्कुल फूलों जैसा किरदार था जीवन में
लेकिन आज मैं काँटो की सवारी हो गया

कल कुंभकर्ण की तरह हमेशा बेफिक्र सोता था
लेकिन चाहत में मीरा की तरह साधक हो गया

कल दिन रात दोस्तो की मदद करता था मैं
लेकिन आज वक्त के हाथों खुद गिरवी हो गया

प्रेम मोहबत तसली से रहता था अपने घर मे
तेरे जाने पर सूखती नदी की मछली हो गया

थी हवाये मुस्कुराती सी ऋषभ ,और गाती धूप
मगर प्रदूषण का इन सब पर पहरा हो गया

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