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9 Jun 2017 · 4 min read

हिन्दू मुस्लिम समन्वय के प्रतीक कबीर बाबा

आज धर्म के नाम पर एक दुसरे पर छींटाकसी करने वाले तथाकथित हिन्दू और मुसलमान जो शायद ही धर्म के वास्तविक स्वरूप की परिभाषा जानते हो ऐसे समय में उन्हें कबीर जैसे महान व्यक्तित्व के विचारों को पुन: पढना चाहिए |
कबीर किसी विशेष पंथ सम्प्रदाय के नही अपितु पूरी मानव जाति के लिए प्रेरणा स्त्रोत थे| उन्होंने अपने समय में फैली सामाजिक बुराइयों चाहे वो मुसलमानों से सम्बन्धित हो या हिन्दुओं से सम्बन्धित उनका पुरजोर विरोध किया | उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए कहा की….

‘कंकड़ पत्थर जोड़कर मस्जिद लायी बनाये ,
ता चढ़ मुल्ला बांक दे क्या बहरा हुआ खुदाय|

वहीँ उन्होंने दूसरी और हिन्दू धर्मावलम्बियों को कहा की…

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

धर्म के नाम पर होने वाले उपद्रवों के लिए उन्होंने कहा इस संसार में तुम्हारा कोई शत्रु नहीं हो सकता यदि तुम्हारा हृदय पवित्र एंव शीतल है। यदि तुम अपने घमंड और अहंकार को छोड़ दो तो सभी तुम्हारे उपर दयावान रहेंगे।

जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होये
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोये।

अपने प्रभावशील धारधार विचारों से दूध का दूध और पानी का पानी करने वाला ये महापुरुष न हिन्दू था न मुसलमान था| कबीर जीवन भर कहते रहे ‘राम’ ‘रहीम’ एक है, नाम धराया दोय| कबीर का मजहब केवल मानवता था| जिसे भूलकर आज का मानव धर्म के नाम पर बंटता चला जा रहा है|

जीवन भर अपनी वाणी से लोगों में समन्वय करने वाले कबीर कीजब मृत्यु हुई तो हिन्दू और मुस्लिमों ने उनके शरीर को पाने के लिये अपना-अपना दावा पेश किया। दोनों धर्मों के लोग अपने रीति-रिवाज़ और परंपरा के अनुसार कबीर का अंतिम संस्कार करना चाहते थे।

हिन्दुओं ने कहा कि वो हिन्दू थे इसलिये वे उनके शरीर को जलाना चाहते है जबकि मुस्लिमों ने कहा कि कबीर मुस्लिम थे इसलिये वो उनको दफनाना चाहते है। लेकिन जब उन लोगों ने कबीर के शरीर पर से चादर हटायी तो उन्होंने पाया कि कुछ फूल वहाँ पर पड़े है। उन्होंने फूलों को आपस में बाँट लिया और अपने-अपने रीति-रिवाजों से महान कबीर का अंतिम संस्कार संपन्न किया।

ऐसा भी माना जाता है कि जब दोनों समुदाय आपस में लड़ रहे थे तो कबीर दास की आत्मा आयी और कहा कि “ना ही मैं हिन्दू हूँ और ना ही मैं मुसलमान हूँ। यहाँ कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है। मैं दोनों हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ, और सब हूँ। मैं दोनों मे भगवान देखता हूँ। उनके लिये हिन्दू और मुसलमान एक है जो इसके गलत अर्थ से मुक्त है। परदे को हटाओ और जादू देखो”।

कबीर के गुरु के सम्बन्ध में प्रचलित कथन है कि कबीर को उपयुक्त गुरु की तलाश थी। वह वैष्णव संत आचार्य रामानंद को अपना अपना गुरु बनाना चाहते थे लेकिन उन्होंने कबीर को शिष्य बनाने से मना कर दिया लेकिन कबीर ने अपने मन में ठान लिया कि स्वामी रामानंद को ही हर कीमत पर अपना गुरु बनाऊंगा ,इसके लिए कबीर के मन में एक विचार आया कि स्वामी रामानंद जी सुबह चार बजे गंगा स्नान करने जाते हैं उसके पहले ही उनके जाने के मार्ग में सीढ़ियों पर लेट जाऊँगा और उन्होंने ऐसा ही किया।

एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल ‘राम-राम’ शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये एक किवदन्ती के अनुसार शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरू कहा जाता है, कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।

वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। उन्होंने कहा “सूरज चन्‍द्र का एक ही उजियारा, सब यहि पसरा ब्रह्म पसारा।” अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। अपनी इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए ; क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है।मगहर में उन्होंने अंतिम साँस ली। आज भी वहां स्थित मजार व समाधी स्थित है।

भारत वर्ष के इतिहास में इन दो महान (हिन्दू मुसलमान) धर्मों की विचारधारा को समान रूप से समन्वित करने वाला ऐसा महामानव कदाचित ही मिले आइये आज कबीर जयंती के पर्व पर हम अपने भीतर भी इनकी कुछ शिक्षाओं को अपनाकर अपने भावना रुपी पुश अर्पित करें कि आज के परिप्रेक्ष में कबीर बाबा को सच्ची श्रधांजलि होगी |
पंकज प्रखर
कोटा

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