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7 Jun 2017 · 1 min read

पाप नाशिनी अविरल गंगा

?पाप नाशिनी अविरल गंगा?

सब पर बरसे मेरी ममता,
उदारमना हर प्राणी कहता
माँ कहकर सब मुझे पुकारें
पापनाशिनी अविरल सरिता
पर मैं रोती मन ही मन में
नहीं जागरण जनजीवन में|
कूड़ा-करकट,पाप-पुण्य सब
बिखरें हैं मेरे आँगन में|
आखिर कब मानव जागेगा
भीड़ तन्त्र है,क्या साधेगा?
माँ को बेच कमाने वाले,
लोभ पथ कब तक भागेगा?|
मैल अग्नि से घिरी हुई हूँ,
धवल करे वह मेह चाहिए|
नहीं चाहिए अधिक मुझे कुछ,
स्वच्छ पुरातन देह चाहिए|
✍हेमा तिवारी भट्ट✍

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