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29 May 2017 · 1 min read

***** पेट अग्नि*****

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जला नहीं है आज फिर,
चूल्हा गरीब घर का।
है चर्चा लाचार, बेबस,
गरीब की गुजर का।।
दे दिया है लकड़ी उसने,
औरों को जलाने चूल्हे।
पर ये मुमकिन नहीं कभी,
कोई अग्नि चूल्हा उसका छूले।।
बस उसके तो तन ही,
उठती है, अजीब सी लपटें।
कोई दामन को झुलसाए,
कोई बनके आँसू टपके।।
करे क्या भला बेचारा? खुदा ने,
अग्नि पेट मे इतनी लगाया है।
देख गरीब ने सूखे चने,
पेट अग्नि में पकाया है।।
झुलसा हुआ सा दामन लेकर,
दर-दर वो भटकता रहता है।।
धरा क्षितिज तक फैले गम पर,
आँहें भरता रहता है।।
होगी सुबह पल-पल वो,
राहें तकते रहता है।।
धुआँ छत, चूल्हे पे अग्नि हो,
बातें कहता रहता है।।
हर गरीब ने इस इंतजार में,
जीवन अपना बिताया है।
जल गई छत, धूं धूं जिंदगी भी,
चूल्हे ने न अग्नि पाया है।।

संतोष बरमैया “जय”
कुरई, सिवनी, म.प्र.

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