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1 May 2017 · 1 min read

गर्व ....

गर्व ….

रोक सको तो
रोक लो
अपने हाथों से
बहते लहू को
मुझे तुम
कोमल पौधा समझ
जड़ से उखाड़
फेंक देना चाहते थे
मेरे जिस्म के
काँटों में उलझ
तुमने स्वयं ही
अपने हाथ
लहू से रंग डाले
बदलते समय को
तुम नहीं पहचान पाए
शर्म आती है
तुम्हारे पुरुषत्व पर
वो अबला तो
कब की सबला
बन चुकी ही
जिसे कल का पुरुष
अपनी दासी
भोग्या का नाम देता था
देखो
तुम्हारे पुरुषत्व का दम्भ
लाल रंग में रंगा
क़तरा क़तरा
ज़मीं पर गिरकर
किसी को लज्जाहीन
करने की लज्जा से
धरा के गर्भ में
अपने वज़ूद से
शर्मसार हो रहा है
किसी के नारीत्व को
वस्त्रहीन करने से
तुम अपनी कायरता का ही
परिचय दोगे
कभी किसी को
उसकी इज्ज़त का
आँचल ओढ़ा कर देखो
सच
उस दिन
नारी को
तुम पर गर्व होता
और तुम्हें
अपने पुरुषत्व पर
अभिमान होगा,अभिमान होगा,अभिमान होगा……….

सुशील सरना

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