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1 May 2017 · 7 min read

रमेशराज की विरोधरस की मुक्तछंद कविताएँ—2.

-मुक्तछंद-
।। एक शब्द ।।
आज यह होना ही चाहिए
कि हम सब धीरे-धीरे भूख से विलखते हुए
धुआ-धुआ होते हुए लोगों के बीच
एक शब्द टटोलें / आग
एक शब्द टटोले / आक्रोश
एक शब्द टटोलें / आन्दोलन।

अब यह हरगिज बर्दाश्त नहीं होगा
कि रामवती अपने बीमार पति की दवाओं के खातिर
या बच्चों की भूख से तिलमिलाती आंतों की खातिर
दो जून की रोटी की जुगाड़ के लिए
लाला के बहीखातों में अपनी जिदंगी गिरवीं रख आए
या किसी सेठ के यहां आधी रात
नीले बल्व की रोशनी में
रोते-रोते अपने ब्लाऊज के बटन खोले
अपनी अस्मत की नीलामी बोले।

अब हमें रामवती की भूख रुदन
और होटों से लेकर भीतर तक
दही की तरह जमी हुई चुप्पी
और सन्नाटे के बीच
तलाश करना ही होगा
एक शब्द / ज्वालामुखी
एक शब्द / विस्फोट।

इससे पहले कि आदमी को कतरा-कतरा
चूसतां हुई नपुंसक संदर्भो की जोंक
हम सबको खोखला कर दे
हमारे फौलादी जिस्मों में लुंजता भर दे
बहुत जरुरी है
उस दलाली करती हुई भाषा की पकड़
जो हमें इन जोंकों के आदमखोर कुंड में
ला पटकती है
जहां किसी कोढ़ी की तरह
नाकाम और लाचार हो जाते हैं
हमारे सोच |
जिनसे रिसता है कायरता और भिखारीपन का मवाद
अब हमें जारी करना ही होगा / एक संघर्ष,
हमारे खून और पसीने के बल पर
फलते-फूलते लोगों के खिलाफ।

अब पहचानना होगा
हर आदमखोर साफ-साफ |

दोस्त आज यह होना ही चाहिए
कि अखबारों में बलात्कार, हिंसा, डकैती
अपहरण, सितारवादन, भाषण, उद्घाटन की जगह
सुर्खिया हों –
आदमखोर भेडि़यों का कत्ल
एक और जनमेजय
एक और भगत सिंह
एक और चन्द्रशेखर
एक और सुभाष
-रमेशराज

———————————–
-मुक्तछंद-
।। एक शब्द : क्रांति ।।
अब एक इतिहास बन चुका है / आदमी का दर्द
हर किसी पर चाबुक की तरह पड़ रहा है-
एक शब्द – सुविधा
एक शब्द – समाजवाद
एक शब्द – व्यवस्था।

अपनी घायल पीठों पर एक अव्यवस्था लादे
अपनी आखों पर टुच्चे जनतंत्र की काली पट्टी बांधे
हम सब कोल्हू के बैल की तरह
तय कर रहे हैं जीवन की महायात्राएं।

पड़ाव और मजि़ल की उपलब्धि के नाम पर
हमारे होटों पर प्यास और खामोशी के ताले हैं
हमारी नसों में नागफनी और कैक्टस के जाले हैं
हम सब पर तलवार की तरह गिर रहा है-
एक शब्द-वंसत
एक शब्द-भूख
एक शब्द-लक्ष्य।

अब तत्काल कुछ भी तो नहीं है
हमारे पास हमारे पक्ष में
सिवाय इसके कि आदमी को
चाकू की तरह गोदता रहा है-
एक शब्द – आजादी
एक शब्द – खुशहाली।

आजादी के बाद
आदमी के आदिम घावों पर
सिर्फ मलहम लगाते रहे हैं-कागजी आकड़े
आयोग, प्रस्ताव, आश्वासन।
भूख और प्यास के अग्निकुंड में
धकेलती रही है
सत्ता से जुड़ी हुई आदमखोर भाषा।
जख्मों को और ज्यादा हरा करता रहा है-
एक शब्द -संविधान,
एक शब्द-न्याय।

इससे पहले कि
हम सबकी आंखों के सामने
हमारा भविष्य
एक अंधी सुरंग की तरह फैल जाये
इससे पहले कि भूख और प्यास से
हम तिलमिलाने लगें
इससे पहले कि वंसत का
नाटक रचता हुआ
यह आदमखोर मौसम
हम सबको नेस्तनाबूद कर दे
हमें तोड़नी होगी
अपने थके हुए चकनाचूर पांवों के बीच
पसरी हुई अंतहीन खाई।
हमें घेरे में बाहर आना होगा निस्संदेह
हमें खोलनी होगी
आंखों पर बधी हुई
अंध विश्वासों की पट्टी।
हमें तलाशने होंगे नये रास्ते।

अब हमारी नपुंसक मुट्ठियों
और दिमाग के बीच
चाकू की तरह तनना ही चाहिए
एक शब्द : क्रान्ति
एक शब्द : विस्फोट।
-रमेशराज

————————————–
-मुक्तछंद-
।। राजपथ पर ।।
आज जबकि दाने-दाने को मोहताज हैं हम
हमारी आंतों में भूख चाकू-सी उतर रही है,
अभावों के पर्वत ढो रहा है-पूरा देश
हमारा राजा राजपथ पर पीट रहा है ढोल
खुशहाली का-दीवाली का।

जबकि हम जानते हैं कि हमारे राजा के पास
उपलब्धियों के नाम पर एक अंधी सुरंग है
जिसके भीतर बैठकर
हिंदुस्तान का विधान बनाते हैं
कुछ आदमखोर।
आपस में हाथ मिलाते हैं
देश-भर के तस्कर और चोर।

हमारे राजा के पास व्यवस्था के नाम पर
सांप्रदायिक दंगे हैं, बलात्कार हैं
डकैती है, लूटखसोट है- चोट है |
सुविधा के नाम पर-
अकाल है, भूख है, सवाल हैं
हमारे राजा के पास
एक जादू की छड़ी हैं जनतंत्र
जिससे वह हम सबको
वंसत के सपने दिखला रहा है
समाजवादी कठपुतलियां नचा रहा है।

अब जबकि पूरे देश का दर्द
एक इतिहास बन चुका है
हम सब पर बन्दूक की तन चुका है-
एक शब्द : सुविधा
एक शब्द : वसंत।

ऐसे में आओ कविता को किसी
चाकू की तरह इस्तेमाल करें ।
शब्दों को व्यवस्था की
तह में रख दें डायनामाइट की तरह।

कविता में
एकदम नंगा करके देखें राजा को।

कविता भाटगीरी का नाम नहीं मेरे भाई
कविता एक शब्द है : आग
कविता एक शब्द है : क्रान्ति
कविता एक शब्द है : भूख
कविता एक शब्द है : हक ।
-रमेशराज

———————————
-मुक्तछंद-
।। क्रान्ति-बिगुल ।।
सोचता हूं
आखिर कहां टूटता है सन्नाटा
कहां उगती है क्रान्ति
कहां फैलाती है आग
सिवाय इसके कि
भूख और आजादी की चाह से
तिलमिलाते हुए कविता के होंठ
उगलते है दो चार गालियां
फैंकते हैं दो चार चिनगारियां।
कविता सुनने या पढ़ने के बाद
लोग पीटते है तालियां।

कविता नपुंसकों के बीच
और बाँझ होती जा रही है लगातार।

ऐसे मुझे याद आते हैं
धूमिल—मुक्तिबोध—-दुष्यंत
शब्दों को किसी धारदार
हथियार-सा इस्तेमाल करते हुए
भाषा को चिंगारी-सा रखते हुए।

सोचता हूं
कविता की लाख कोशिशों के बावजूद
एक और बदतर कमीनेपन की मिसाल
क्यों बनता गया है आदमी?
शब्द डायनामाइट बन कर भी
क्यों नहीं कर पाते हैं विस्फोट?

यह सच है
कविता भूख नहीं मिटा सकती
पर भूख से लड़ने की ताकत तो देती है।
रोटी के लिए संघर्ष को तेज तो करती है,
आदमी को जुल्म के खिलाफ खड़ा तो करती है।

सोचता हूं
कविता को अब रोटी हो जाना चाहिए।
शब्दों को आदमी की भूख मिटानी चाहिए।
भाषा को बजाना चाहिये : क्रांति-बिगुल
तोड़ना चाहिए सन्नाटा : करना चाहिए विस्फोट।
+रमेशराज

-मुक्तछंद-
।। गाय और सूअरों के साथ ।।
आजादी के बाद आज तक
अक्सर वह
खेलते रहे हैं
गाय और सूअरों के साथ।
अब की बार भी कुछ ऐसा ही हुआ
वह गाय और सूअरों के
गद्देदार पुट्ठों पर हाथ फेरते रहे
पीठ थपथपाते रहे
बटारते रहे उनकी आत्मीयता
और फिर यकायक उन्होंने
गाय और सूअरों के पेट में
छुरे और चाकू घुसेड़ दिये।

कमाल तो यह है
कि सूअरों की हत्या की गयी
मस्जिद के इबादतगाह में
और गायें मरी हुई मिली
मंदिर में
ठीक पीतल के घटों के नीचे।

जिन दिनों यह घटनाएं घटीं
उन दिनों लोंगों ने देखा कि
आदमी के भीतर
गुर्राते हुए भेडि़यों की तरह
अफवाहें उत्प्रेरक का काम कर रही हैं,
अत्प्रत्याशित दंगे के लिए
उकसा रहे हैं
गाय और सूअर शब्द।

उन दिनों
लोगों ने महसूस किया कि
धर्म, वर्ग, सम्प्रदाय
चाकू और बम की तरह भी
इस्तेमाल किए जा सकते हैं
लोगों पर / लोगों के बीच।

उन दिनों
दबी-दबी ज़बान में
कुछ ऐसी बातें भी सामने आयीं
कि प्रशासन शासन नेता
पक्ष-विपक्ष आदि शब्द
साम्प्रदायिक दंगों की
पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।

उन दिनों
लोगों ने यह भी देखा
कि जिन लोगों ने
गाय और सूअर की हत्या की थी
जो घोंप रहे थे आदमी की
पीठ में चाकू
जो दाग रहे थे गोलियां
अब जब कि पूरा शहर
साम्प्रदायिक दंगे की चपेट में था
धू-धू कर जल रही थी इन्सानियत,
वे या तो कर्फ्यू की घोषणाएं
करा रहे थे
या किसी फाइवस्टार होटल में
सुरा और सुन्दरी का स्वाद चख रहे थे
या फिर सदन में
आदमी सूअर गाय की
हत्या पर
शोक प्रस्ताव पढ़ रहे थे।
-रमेशराज

—————————-
-मुक्तछंद-
।। ऐसे में ।।
अब जबकि हम
अप्रत्याशित हादसों के दौर में गुजर रहे हैं,
शब्दों के धारदार ब्लेड
हमारे जिस्म की
खाल उतार रहे हैं लगातार
हमें स्पंज की तरह सोख रहा है
कतरा-कतरा प्रजातंत्र,
रोटी के लिए
किया गया संघर्ष।

ऐसे में
बहुत जरूरी हो गया है
कि हम आदमी की
समझ और चेतना को
निर्णय के ऐसे बिन्दु पर ले जाएं
जहां आदमी तिलमिला कर
षडयंत्र रचते हुए गलत इरादों पर
आक्रोश की कुल्हाडि़यां उछालने लगे
और फिर उस व्यवस्था के
उन आदमखोर जबड़ों को
नेस्तनाबूत कर दे
जिन में हमारे सोच, तर्क और समझ
के कबूतर
लाख कोशिशों के बाद
वहां यकायक समा जाते हैं।
कुछ देर पंख फड़फड़ाते हैं
फिर जिबह हो जाते हैं।

हमें खड़ा होना होगा उन दरिदों के खिलाफ
जो हमारी पीठ पर कोरे आश्वासनों के
अदृश्य कोड़े बरसा रहे हैं।
गरीबी और समाजवाद के टुच्चे नारे लगा रहे हैं।

ऐसे में बहुत जरूरी है
उन जादूगर शब्दों की तलाश
जो फुसला-फुसला कर
आदमी की भावनाओं को
अंधेरे में ले जाते हैं
फिर यकायक उनके साथ
बलात्कार कर जाते हैं।

हमें कुचलने होंगे
भूख और अवसाद के क्षणों में
उभरते हुए में सायों के फन।
जो हमारी आतों में जोर से पुंकार रहे हैं
भूख के जहर से हम सब को मार रहे हैं।

अब जब कि हम
अपनी दुख-दर्द-भरी दिल की रगें सहला रहे हैं
वसंत की प्रतीक्षा में पेड़ों की तरह
नंगे हो रहे हैं लगातार,
देखो ऐसे में हर पर्दे के पीछे कोई है
जो हमारी हालत पर हंस रहा है,
हमारे खिलाफ एक षड्यंत्र रच रहा है।
-रमेशराज

———————————–
-मुक्तछंद-
।। समाजवाद सिर्फ एक अफवाह ।।
युवा पीढ़ी
अब तिलमिला रही है लगातार
अपनी मुक्ति के लिए।

वह बदल देना चाहती है
वह व्यवस्था
जिस में
टुच्चे नारों भाषणों बीच
आदमी और ज्यादा नंगा हो रहा है।
जिसमें रोटी के एक-एक टुकड़े को
मुहताज है गरीब।

युवा पीढ़ी अब समझने लगी है
कि समाजवाद सिर्फ एक अफवाह है
जो आदमी को गलत निर्णयों की
अंधी सुरग में ले जाकर उसका क़त्ल कर देती है।
और प्रजातंत्र कुछ तानाशाहों का
एक घिसा-पिटा रिकार्डप्लेयर है
जिसे वे हर वंसतोत्सव पर
तालियां पीटते हुए बजाते हैं।

युवा पीढ़ी के दिमाग में
अब चाकुओं की तरह तनी हुई है
टुच्चे संविधान का खूनी व्याकरण,
उसके दिमाग के संवेदनशील हिस्सों में
अब विचारों के डायनामाइट भरे हुए हैं
जिन्हें वह इस संड़ाध-भरी व्यवस्था के
नीचे रख देना चाहती है।

उसका जिस्म अब बारूद की-सी गंध छोड़ रहा है
उसकी आंखें अब दहकी हुई अगीठियां हैं
एक लपलपाती आग के रूप में
अपनी नव शक्ति का प्रदर्शन करना चाहती है
अब युवा पीढ़ी।
-रमेशराज
——————————————————-
Rameshraj, 15/109, Isanagar, Aligarh-202001

Language: Hindi
806 Views
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