Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
4 Apr 2017 · 1 min read

ना भूल पाऊंगा मैं..

ना भूल पाऊँगा मैं
उन दिनों की मस्ती
जो बितायीं थी मैंने
मेरी जिंदगी के साथ।
वो नीम का पेड़
गवाह बनकर
गवाही दे रहा है
हमारी मस्ती की।
यादों के वकील भी
कहने लगे अब तो कि-
लौटा दो हमारी
वो मस्ती …
वो मस्ती….
ना भूल पाऊँगा मैं
उन दिनों की मस्ती
जो बितायीं थी मैंने
मेरी जिंदगी के साथ।
उस नीम के पेड़ की
डालियाँ तो टूट गयी
पर
तना अब भी गवाई देता है
हमारी दोस्ती की।
उस मकान के खंडहर
जज बनकर सजा सुनाते हैं,
उन दिनों की मस्ती को
याद करने की
दुःख और बहुत दुःख
अनुभव करने की।
ऐ वक्त!
क्या तुझे वापस ला पाऊंगा
ना भूल पाऊँगा मैं
उन दिनों की मस्ती
जो बितायीं थी मैंने
मेरी जिंदगी के साथ।

वो दो लोगों के खाने पर
पाँच लोगों का झपटना
एक-एक रोटी खाकर ही
पेट भरना
खलता है मुझे।
कौन कहता है साहब कि
भूख केवल रोटी से मिटती है
हमने लब्जों से भूखों को
मिटते देखा है।
उन दोस्तों की दोस्ती,
लब्जों की रोटी तो
आज भी जिन्दा है
पर उस मस्ती के लिए खुद को
बिलखते देखा है।
बहुत ज्यादा …
बहुत ज्यादा….
क्या उन लम्हों को
फिर से पाऊंगा मैं
ना भूल पाऊँगा मैं
उन दिनों की मस्ती
जो बितायीं थी मैंने
मेरी जिंदगी के साथ।

रचनाकार -नरेश मौर्य
(विनोद, सुभाष, प्रशांत, पुरुषोत्तम और मेरी खुद की यादों की अनुभूती के साथ , मेरे इन दोस्तों की दोस्ती को समर्पित।)

Loading...