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22 Mar 2017 · 1 min read

उजली-सी किरण

वो उजली सी किरण
चली थी कुछ यूँ निकलकर
नभ से गिरी सी
धरा पर चली आई
कभी शाख पर कभी पात पर
कभी किसी नीर के विविध गात पर
उल्लसित होकर लहरों से उलझी
फिर किसी उदास कोने में सिमटी
विरोधी तम रहा दूर भागता सा
दमकने लगे कण उसमें नहाकर
गिरी ज्यूँ सुंदरी के सुनहली देह पर
मुदित हो गई मानो रूप लावण्या
कर्ण फूल से उठी चमक से
चुँधियाने लगी कई लोलुप आँखें
चरम पर बढा़ जब दिवस का पहरा
आर्तनाद करने लगी छिपी बूँद निशा की
किरण ने भी फिर रूद्रता दिखाई
चुभने लगी कोमलांगों को
पर तपते पथ पर
था एक मानुस गात
जो लापरवाह सा डूबा था स्वकर्म में
श्रमजल से आप्लावित श्याम देह उसकी
थी बानगी उसकी उद्यमिता की
एक कंकरीट के पहाड़ को
जो अपनी कला से
एक सुघड़ अट्टालिका में था गढ़ता
किरण जो पहुँची सगर्व पास उसके
मगर धुंधला गई उसकी दमक से
पडी़ ज्यूँ पुष्ट स्याह गात पर
दम तोड़ने लगी छटपटाकर
पिघल गई पा निजता उसकी
तीक्ष्णता किरण की कुंद हो गई
डिगा न पाई
श्रमिक के पग को
विलीन हो गई
उसकी कर्मठता में
बडी़ सूक्ष्मता से देखा जो उसको
एक आह सी निकली स्वेद के कणों से
ओह! किरण जो तपाती थी
हर एक सै को
वो सह न पाई स्वयं
ताप उस हठी उद्यमी का
सोनू हंस

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