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27 Feb 2017 · 1 min read

आवारा बादल

तन्हा भटकता आवारा बादल सा मैं
वादियों-पहाड़ों के ऊपर से गुजरता हुआ
देखता हूँ लोगों के एक झुण्ड को
फूलों के उस बगीचे में, झील किनारे
पेड़ों के पास नाचते हुए, झूमते हुए

वो लोग उन चमकते सितारों की तरह
जो आकाशगंगा से प्रतीत होते हैं
कभी न खत्म होने वाली
एक रेखा से अवतरित होते हैं
हज़ारों चेहरे खुशनुमा से दिखते हैं
ख़ुशी से झूमते गाते हुए

झील की लहरें जो हैं उनके करीब
वो भी ताल से ताल मिला रही हैं
पत्तियों की सरसराहट
चिड़ियों की चहचहाट भी
उन गीतों की धुन से धुन मिला रही हैं
मैं, एक कवि बस खुश होता हूँ
ऐसे मनोहारी वातावरण में
उन्हें ताकते हुए मन मैं ये सोचता हूँ
कि किस ख़ज़ाने की तलाश में
मैं आवारा बादल की तरह भटकता हूँ

शाम को अपने बिस्तर पर जब लेटा
खली सा मन लिए जब अंतर्मन टटोलता हूँ
तन्हाइयों के आगोश में
मन में खुशनुमा एहसास लिए
उन्हीं गीतों को याद करता हूँ
मैं आवारा बादल की तरह भटकता हूँ

–प्रतीक

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