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21 Feb 2017 · 1 min read

* नमन उस नदीश को *

नमन उस नदीश को जिसने झेला नदियों के वेग को
नमन उस नदीश को जिसने झेला
विष शेष अशेष का
नमन उस नदीश को जिसने झेला
वेग हृदय आवेश का
नमन उस नदीश को जिसने झेला
आवेग उमड़ते प्रेम का
विष सहता घुट घुट अंतरमन में
प्रस्फुटित ना करता
हो ना विरोध फिर अनेक में सोच
रहता धीर गम्भीर
नमन उस धैर्यशील नदीश को
जिसने कब जाना कब माना किसको अपना और पराया
धीरज धर सहता आया नदियों के आवेश को
नदियों ने माना जिसको अपना
क्या ग़म उसका पहचाना
हृदय पटल को दोलती सब
स्वार्थ को सब जाना
कब नदियों ने सागर को अपना माना
सुख चाहती मन का मैला ढोती
सागर को तब अपनाती
सागर ने कब मिलने से
तुम को रोका
हर हाल में हैं सागर विशाल है
हृदय उसका विशाल
कब सागर ने स्वार्थ सोच
नदियों को है अपनाया
कब भेद किया उसने संग गंगा-जमना को है अपनाया
नमन उस नदीश को जिसने सह
सब सबको अपनाया
नमन उस नदीश को
नमन उस नदीश को ।।
?मधुप बैरागी

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