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5 Feb 2017 · 1 min read

ग़ज़ल /गीतिका

इस जीस्त से निराश हूँ मैं, यार क्या करूँ
कुछ भी तो सूझता है नहीं, प्यार क्या करूँ |

हमको निभाना प्यार तो, इकरार क्या करूँ
उत्सर्ग जिंदगी है तो, इज़हार क्या करूँ |

सबने तमाशा देखा, चमत्कार क्या करूँ
सब जानते यहाँ नया दमदार क्या करूँ |

ये जीस्त भी अजीब है, इज्ज़त मिली नहीं
खाया हूँ डांट,चोट, तिरस्कार, क्या करूँ |

हर बात दोस्त मानता, जोरू जो बोलती
इस भीरु दोस्त से मैं क्या तकरार करूँ |

माँगे बिना मिला नहीं कुछ भी यहाँ कभी
ये प्यार जो तुम्हारा है, इनकार क्या करूँ |

है नाव जिंदगी का रहा तैरता मगर
कश्ती तो डगमगा रही मझधार, क्या करूँ |

यह तोहफा अनूठा है, थोड़ा डरावना
लड़ना तो जानता नहीं, तलवार क्या करूँ |

आना है हमको और यहाँ, रहना नहीं कभी
जग-हाट में दुकान का विस्तार क्या करूँ |

खोटी नसीब है मेरी, अब क्या कहूँ तुझे
पाना तुझे तमन्ना थी, उपहार क्या करूँ |

जब फ़र्ज़ ही नसीब है, अधिकार तो नहीं
यह जिंदगी तुम्हारी है, उपकार क्या करूँ ||

© कालीपद’प्रसाद’
***

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