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4 Feb 2017 · 1 min read

मन की गति

मन की गति,
कभी हिरनों सी कुलांचे मारती
गिलहरी सी फुदकती
कहीं खुशियाँ बिखेरती
अपनी ही मस्ती में मदमस्त होती
मन की गति।
और कभी खुद को कछुए के मानिंद
छुपाए होती अपने ही कवच में
कुछ इस तरह,
कि अंदर की हलचल का
आभास ही नहीं होता ऊपर।
और कभी घायल शेर सी आक्रामक
या नागिन सी त्वरित तत्पर
इतनी त्वरित कि
अपनी ही प्रतिक्रिया
से अनजान ।
खडे कर देती
न जाने कितने तूफान ।
इन सारी गतियों से परे
एक गति वो भी
जिसमें न बाहर हलचल
न अंदर कोलाहल ।
इसकी मिसाल
किसी पशु से नहीं देते बनती।
मानो मन में बैठ गए
साक्षात् भगवान् ।
वाह रे मन
तेरी महिमा महान् ।

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