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2 Feb 2017 · 1 min read

ग़ज़ल

वो क्यों बोलने में सँभलते रहे
लगा मुझको सच वो निगलते रहे

वहाँ ख़ास की पूछ होती रही
मियां आम थे हम तो टलते रहे

मिरी ज़िन्दगी की कहानी छपी
रिसाले हज़ारों निकलते रहे

छपा था जो अन्दर वही रह गया
कवर पेज लेकिन बदलते रहे

पता था मुझे झूठ बोला गया
ये मज़बूरियां थी बहलते रहे

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