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29 Jan 2017 · 1 min read

मिलन की आस

” कैनवास की उकेरी रेखाऐं,
बड़ी नादान हो तुम,
मुस्कुराती भी हो, मचलती भी हो,
इंद्रधनुष के सतरंगी बुँदो की तरह ।

तुम एक नज़रिया हो,
किसी चित्रकार की…. बस,
कोई नियती नहीं,
सुनहरी धूप में खिली गुलाबी पात की तरह ।

हम इत्तेफाक़ नहीं रखते किसी की आहट से,
यूँ ही गली में झाक कर ……. ,
थिड़कती भी हो, सँवरती भी हो,
किसी आँखो के साकार हुए सपने की तरह ।”

पता नहीं क्या आस बिछाय,
अपनी चौखट से बार-बार,
एकटक से क्षितिज निहार रहीं हो…,
स्वाती बुँद की आस लगाये चातक की तरह ।

पीली सरसों पे तितँली को मचलते देख,
तुम भी मिलन की आस लगा लिये,
तेज तुफाँ में भी दीये की लौ जला लिये,
मृगतृष्णा में दौडती रेत की हिरण की तरह ।
बड़ी नादान हो तुम ।

#रामबन्धुवत्स

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