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25 Jan 2017 · 1 min read

नदी जो इक नारी है

पर्वतों से पिघलती नदियाँ
खिलखिलाती हुई
इठलाती हुई
चट्टानों से खेलती
निच्छल
निकल पड़ती हैं
सागर की चाह में

युवा नदियाँ
पहाड़ों से आलिंगनबद्ध होकर
निकलती हैं मचलती हुई
रास्तों में बसाती जाती हैं
कई नगर, कई शहर
कई सभ्यताएं
कई संस्कृति
हरे-भरे खेत
झाड़ियाँ और कुछ जंगल भी

यूँ ही अनवरत चलते चलते
न थकती है, न रूकती हैं
बस थोड़ी उम्रदराज हो जाती हैं नदियाँ
पर नहीं भूल पाती हैं नारी स्वभाव
अभी भी बस मन में होता है
सिर्फ देने का ही भाव

पुरुष अपने स्वभाव के अनुरूप
बांधता चला जाता है
उस निर्झरणी को बन्धनों में
फिर उसके अस्तित्व से खेलकर
मलिन करता जाता है
मिटाता जाता है
उसकी पहचान

नदी चीखती है
पुकारती है
अपनी पहचान बचाने
पर जितना चीखती है वो तटिनी
स्वार्थ में अँधा इंसान
और कसता चला जाता है शिकंजा
मिटाने नदी की पहचान

ओह मानव!
नदी नहीं भूल पाती कभी
कि
वो भी तो इक नारी है
जिसके भाग्य में लिखा है
सिर्फ दूसरों के लिए जीना
जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं होती

वो अपनी पहचान बनाने की
कभी कोशिश करती भी है तो
मिटा दी जाती है
बीच सफर में
अंततः नहीं पहुँच पाती कभी
वो सागर तक

और बन जाती है एक इतिहास
अपने अन्दर समेटे हुए
वर्षों का इतिहास

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लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
भोपाल
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